Wednesday, March 26, 2008

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) 2005

ग्रामीण छेत्र में विशाल खेतिहर आबादी के बीच तेजी से बढाती बेरोजगारों की विशाल फौज, जिसे भारत के आजादी के पचास साल बाद भी भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था रोजगार देने में न केवल अक्षम है बल्कि प्रति दिन उनके तादाद में वृद्धि कर रहा है , असंगठित होने के चलते असहाय और भयंकर बदहाली के हालत में है।

वर्ष २००५ में जब इस क़ानून को बनाया गया उस समय विदेशी कर्ज के भार से दबी और लगभग दिवालिया होने के कगार पर खड़ी केन्द्र सरकार इतना मजबूर और असक्त हो गई थी कि आजादी के पच्चास साल बाद भी उसे खुलेआम बड़ी निर्लज्जता से घोषणा करनी पड़ी कि वो इन सभी को साल भर रोजगार की गारंटी तत्काल प्रभाव से नही कर सकती।

नरेगा के एक पूर्ववर्ती योजना, सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (एसजीआरवाई) में गांव श्रम नेता (VLL) एक वास्तविक ठेकेदार होता था। कहने को तो वही काम का आदेश प्राप्त करता था, धन खर्च करता था, काम का इंतजाम करता था और उपस्थिति पुस्तिका भरने का काम करता था. नरेगा के तहत धनराशि पंचायत के माध्यम से खर्च होना है, VLL को अन्य मजदूरों के सामान मजदूरी कमाना है, और इस योजना में उसे एक मात्र पर्यवेक्षक माना गया है. नरेगा के तहत आज तक चाहे जितने लोगो को वास्तव में रोजगार मिला हो, पर इतना तय है की शाषक वर्ग के गुर्गो, गाँव के दबंगों राजीनीतिक छूटभाईओं के लिए यह एक सुनहरे अवसर की तरह है जहाँ लूट की सीमा का अंदाजा लगना भी मुश्किल है. अपने पूर्ववर्ती सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना की तरह यह भी गाँव में आज शासक वर्ग के लिए वरदान और भ्रष्टाचार का मुख्य केन्द्र साबित हो रहा है.

इस परियोजना को लागू करने का वादा यूपीए के मनमोहन सिंह ने भारतीय आम चुनाव, 2004 के समय चुनाव में विजय हासिल करने के लिए किया था. हालाकि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) 2005, 25 अगस्त, 2005 को अधिनियमित गया फ़िर भी इसे लागू होने के लिए एक लंबे समय तक इंतजार करना पड़ा और आख़िर में जब नरेगा दो फरवरी, 2006 को लागू किया गया तो पहले चरण में इसे देश के 200 सबसे पिछड़े जिलों तक सीमित रखना पड़ा। दूसरे चरण में वर्ष 2007-08 में इसमें और 130 जिलों को शामिल किया जा सका। योजना को एक अप्रैल 2008 से सभी शेष ग्रामीण जिलों (सब मिला कर ६०० ) तक विस्तार देने की घोषणा की गई है.

इस योजना के तहत हर घर के एक वयस्क सदस्य को एक वित्त वर्ष में कम से कम 100 दिनों का रोजगार दिए जाने की गारंटी दी गई है। यह रोजगार शारीरिक श्रम के संदर्भ में है और उस वयस्क व्यक्ति को प्रदान किया जाता है जो अधिसूचना, द्वारा इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए निर्दिष्ट: की गई मजदूरी दर पर, जो प्रति दिन साठ रुपये से कम नही होगा या न्यूनतम वेतन पर, अगर उक्त क्षेत्र के लिए मजदूरी दर सम्बंधित कोई अधिसूचना जारी नही की गई है, काम करने के लिए राजी हो। रोजगार प्रदान करने के खर्च का 90 प्रतिशत हिस्सा केन्द्र वहन करता है। इसके अलावा इस बात पर भी जोर दिया जाता है कि रोजगार शारीरिक श्रम आधारित हो जिसमें ठेकेदारों और मशीनों का कोई दखल न हो। अधिनियम में महिलाओं की 33 प्रतिशत श्रम भागीदारी को भी सुनिश्चित किया गया है।

धारा ६(१) के अनुसार न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के बावजूद केन्द्रीय सरकार, अधिसूचना, द्वारा इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए मजदूरी दर निर्दिष्ट कर सकती हैं और मजदूरी की दरें विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग अलग हो सकती है परंतु निर्दिष्ट: मजदूरी दर प्रति दिन साठ रुपये से कम नहीं किया जाएगा. धारा ६(२) के अनुसार अगर किसी क्षेत्र में अधिसूचना नही जारी की गई है तो उस क्षेत्र में राज्य सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 की धारा 3 के तहत कृषि मजदूरों के लिए निर्धारित न्यूनतम वेतन दर उस क्षेत्र पर लागू माना जाएगा.

इस तरह पूंजीवादी सरकार द्वारा बेईमानी पूर्वक अपने हित में एक दम कम "न्यूनतम मजदूरी अधिनियम" के अंतर्गत निर्धारित "न्यूनतम मजदूरी" भी नही देने का अधिकार सरकार ने अपने पास रखा है और विधिवत कानून में प्रावधान कर के इसकी खुलेआम घोषणा कर चुकी है. ग्रामीण रोजगार योजना में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के बावजूद सिर्फ़ ६० रूपया प्रति दिन मजदूरी अधिसूचना के द्वारा निर्धारित करने का सरकार का अधिकार क्या न्यायोचित एव कानून सम्मत है ? पूंजीवादी सरकार अपने ही संसद द्वारा बनाये "न्यूनतम मजदूरी अधिनियम" के प्रावधानों का खुलेआम धजिया उड़ा रही है और इस गंभीर समस्या के सामने मानवाधिकार आयोग से ले कर सारे बुर्जुवा लोकतान्त्रिक संस्थान, एन जी ओ एवं विभिन्न तरह की सुधारवादी पार्टिया बौने साबित हो रहे है।

ग्रामीण खेतिहर आबादी में पूंजीवाद जनित बेरोजगारी से फैले भयंकर असंतोष से निपटने के लिए, उन पर ठंडा पानी डालने के लिए पूंजीवादी सरकार उन थोड़े से जिले में भी रोजगार गारंटी लागु करते समय पूरे वर्ष में १०० कार्य दिवस से ज्यादा रोजगार की गारंटी देने में जब अपनी असमर्थता का ढोल पीट रही थी, यूपीए घटक की अन्य सुधारवादी पार्टिया बड़ी निर्लज्जता से राहत की साँस ले रही थी कि कम से कम उनके समर्थन से बनी सरकार की छवि कुछ तो सुधर रही है।

इतना ही नही वे इस बुर्जुआ प्रपंच और भ्रम को फैलाने में लगे हुए है कि इस गंभीर समस्या का समाधान पूंजीवादी व्यवस्था के दायेरे में रह कर भी किया जा सकता है.

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