Thursday, September 18, 2008

ठेका श्रम ( विनियमन और उत्सादन ) अधिनियम , 1970

ज दुनिया में तेज गति से बढ़ते वैश्वीकरण के माहौल में पूंजीवादी लाभ- उन्मुख अर्थव्यवस्थाओं में ठेका-श्रम को बढ़ावा देने का पवित्र कार्य हर देश की सरकार अपने पूंजीवादी आकाओं के हित में बड़ी निर्लज्जता से कर रही है। भारत इसका अपवाद नही है। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों का प्रतिशत 92 है जबकि औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों का प्रतिशत केवल ८ है. अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले ये मजदूर मुख्यतः असंगठित एव विखेरे है. उनके लिए कोई सामजिक सुरक्षा नही है. भारत में बनाया गया कोई भी श्रम कानून व्यव्हार में उन पर लागु नही होता है. औपचारिक क्षेत्र में भी काम करने वाले मजदूरों का एक बड़ा वर्ग है जिसे ठेका-श्रम, बदली, अस्थायी मजदूर के रूप में नामित किया जाता है. जब किसी कामगार को किसी संस्था या कम्पनी का कार्य करवाने के लिए किसी ठेकेदार के द्वारा नियुक्त किया जाता है तो वैसे कामगार को ठेका श्रम कहते है.

भारत में ठेका श्रम ( विनियमन और उत्सादन ) अधिनियम , 1970 के आने के पहले से ही ठेका श्रम प्रचलन में था। विभिन्न समितियों और आयोगों ने ठेका-श्रम पर विचार करते समय ठेका श्रमिकों के भयंकर शोषण के बावजूद ठेका श्रम प्रथा को पूर्ण रूप से समाप्त करने की अनुसंसा करने के जगह पूंजीपति वर्ग के हित में एक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया. श्रम जांच समिति ने 1946 में अपने अनुसंसा में पूंजीपति वर्ग के हित में उसी व्यावहारिक दृष्टिकोण का परिचय देते हुए कहा कि जंहा भी संभव हो ठेका श्रम को समाप्त किया जाना चाहिए और जहाँ सम्भव नही हो वहाँ इसका नियमन करना चाहिए. शासक वर्ग के विभिन्न गुट यह खुलेआम स्वीकार करते रहे है कि ठेका श्रम प्रथा का प्रचलन को पूरी तरह समाप्त नही किया जा सकता है .

इस अधिनियम के तहत काम की कुछ श्रेणियों में ठेका श्रम को प्रतिबंधित करने का प्रावधान किया गया है। ठेका श्रम ( विनियमन और उत्सादन ) अधिनियम , 1970 के धारा 10 में प्रावधान किया गया है कि जो कार्य स्थायी और प्रकृति में पेरेनिअल (perennial) होते हैं, उस कार्य के लिए ठेका श्रम का नियोजन सरकार द्वारा निषिद्ध किया जा सकता है. अगर कार्य निषिद्ध श्रेणी का नहीं है, उस कार्य के लिए ठेका श्रम का नियोजन किया जा सकता है. अगर कार्य की प्रकृति नियमित कार्य की तरह है और प्रमुख आपरेशनों का अभिन्न अंग है तो ठेका श्रम की नियुक्ति प्रमुख नियोक्ता के लिए नही किया जा सकता है. फ़िर भी आज ठेका श्रम की नियुक्ति प्रमुख नियोक्ता के लिए धरल्ले से नियमित प्रकृति वाले कार्य के लिए किया जा रहा है. इतना ही नही इस अधिनियम के तहत ठेका श्रमिकों को मजदूरी की दरें न्यूनतम मजदूरी अधिनियम के तहत निर्धारित दर से कम नही होनी चाहिए. आज इस प्रावधान का भी पूरी तरह से पालन नही हो रहा है. मजदूर असंगठित होने के चलते महँगी एव पेचीदा न्याय प्रक्रिया का लाभ लेने में अक्सर अपने को असमर्थ पाते है. मजदूर इस तरह की स्थिति का सामना विना एकताबद्ध हुए नही कर सकता है. इस लिए मजदूरो को एक संगठन में संगठित होने की आवश्यकता होती है. नियमित प्रकृति वाले कार्य के लिए ठेका श्रमिकों की नियुक्ति का उन्मूलन और साथ में प्रमुख नियोक्ता के अंतर्गत अवशोषण, मजदूर आन्दोलन का एक प्रमुख मांग रहा है और मालिक मजदूर के बीच संघर्ष का मुख्य मुद्दा रहा है. इस मुदे पर सरकार, न्यायालय एव मीडिया कभी खुले, कभी छुपे रूप से हमेशा ठेका श्रमिकों के खिलाफ पूंजीपति वर्ग का साथ दिया है. आज उदारीकरण के नाम पर बिल्कुल नंगा हो कर सरकार, मीडिया इस अधिनियम को पूंजीपति वर्ग के हित में करने की वकालत कर रही है.

ठेका श्रम के प्रचलन में होने के पीछे मुख्य कारण मजदूरों की खराब आर्थिक स्थिति, रोजगार की कमी, बेरोजगारों की विशाल फौज और मुट्ठी भर लोगो के पास पूंजी और उत्पादन के साधन का होना है। पूंजीवाद के विकास के साथ पूंजी और श्रम में बढ़ते विरोध से विवस हो कर सरकार को ठेका श्रम और पूंजी के बीच संबंधो को पूंजीपति के हित में संचालित करने हेतु ठेका श्रम (विनियमन और उत्सादन ) अधिनियम , 1970 लाना पड़ा। इस कानून को लाने के पीछे सरकार की मन्सा ठेका श्रम को ख़तम करना बिल्कुल नही था, बल्कि असली उद्देश्य ठेका श्रम के प्रचलन को कानूनी जामा पहनना था। औद्योगिक श्रमिकों को उनके हक़ से विमुख करने के लिए और उनका तीब्र शोषण करने के लिए पूंजीपतियों द्वारा ठेकेदार के मध्यम से अपने श्रमिकों की नियुक्ति करने का प्रचलन को कानूनी जमा पहना कर सरकार ने यह साबित कर दिया कि वह पूंरी तरह पूंजीपति वर्ग के साथ है।

आर के पांडा बनाम भारतीय इस्पात प्राधिकरण मामले में इस अधिनियम की व्याख्या करते समय भारत के सुप्रीम कोर्ट ने स्पस्ट करते हुए कहा कि इस अधिनियम का उद्देश्य ठेका श्रम को पुरी तरह समाप्त करने का नही है और उसने यह स्वीकार किया कि इस अधिनियम में ऐसी कोई धारा नही है जिसके आधार पर ठेका पर काम करने वाले मिल मजदूरो के काम के अधिकार को अमली जामा पहनाया जा सके। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया कि जो मजदूर, ठेकेदारों के परिवर्तन के बावजूद, १० वर्षो से लगातार काम कर रहे है और जिनकी उम्र सेवा निवर्तन के वर्ष को पार नही किया है और जो कार्य करने के लिए बिल्कुल फिट है, उन्हें नियमित कर्मचारी के रूप में वरिष्ठता के आधार पर अवशोषित की जानी चाहिए. काम के अधिकार को मूलभूत अधिकार बताने वाले भारतीय संविधान के सबसे बड़े रक्षक सुप्रीम कोर्ट ठेका मजदूरो को यह बताने की कोशिस कर रहा है कि १० साल तक ठेका मजदूर के रूप में शोषित होने के बाद ही और इसका प्रमाण देने के बाद ही उन्हें नियमित कर्मचारी के रूप में वरिष्ठता के आधार पर अवशोषित होने का अधिकार मिल पायगा. एयर इंडिया स्तातुतोरी कारपोरेशन बनाम उ लेबर यूनियन एव स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया लिमिटेड बनाम नेशनल यूनियन वाटर फ्रंट वोर्केर्स में भी सुप्रीम कोर्ट ने यही निर्णय दिया.

इतना ही नही यह अधिनियम उन्ही प्रतिष्ठानों में लागू होता है जहां ठेका श्रम के रूप में काम करने वाले कामगार 20 या अधिक हो। मतलब यह की उन सभी प्रतिष्ठानों में जिसमे काम करने वाले कामगारों की संख्या 20 या इससे कम है, यह अधिनियम लागू नही होगा. मालूम होना चाहिए की भारत में ऐसे प्रतिष्ठानों की संख्या कोई कम नही है. इन छोटे प्रतिष्ठानों में कार्यरत ठेका मजदूरों को इनका अबाध शोषण करने का अधिकार मालिको को दे कर भारतीय संसद ने ख़ुद अपने ही संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार का मखौल किया है.

२००१ में सुप्रीम कोर्ट ने विविध कामगार सभा बनाम कल्याणी स्टील्स लिमिटेड एव अन्य [2001] में अपना निर्णय देते समय यह स्पष्ट किया कि (Maharashtra Recognition of Trade Unions & Prevention of Unfair Labour Practices Act, 1971 ) एम् आर टी यु एव पल्प एक्ट का लाभ ठेका-श्रमिकों को नही मिल सकता है. क्रन्तिकारी सुरक्षा रक्षक संगठन बनाम एस वी नायक ((1993) 1 CLR पेज १००२) मुक़दमे में सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला दिया कि MRTU & PULP Act के अंतर्गत दायर विवाद में औधोगिक न्यायालय ठेका श्रम को ख़त्म नही कर सकता है और ठेका-श्रम को कम्पनी का प्रत्यक्ष कामगार के रूप में नही माना जा सकता है. इसका मतलब सीधे तौर पर यह हुआ कि सरकार एक तरफ़ यह स्वीकार करती है कि ठेका-श्रम के रूप में मजदूरो का शोषण हो रहा है जिसको समाप्त करने के लिए कानून भी लाया गया है फ़िर भी ठेका-श्रमिक कम्पनी के शोषण के खिलाफ औधोगिक न्यायालय में विवाद नही दायर कर सकते. तो भी सरकार संविधान में प्रदत निर्देशक सिद्धांतों का हवाला देते हुए बड़ी निर्लज्जता से ऐलान करते नही थकती कि वह हर तरह के शोषण का खात्मा करे गी.

Wednesday, March 26, 2008

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) 2005

ग्रामीण छेत्र में विशाल खेतिहर आबादी के बीच तेजी से बढाती बेरोजगारों की विशाल फौज, जिसे भारत के आजादी के पचास साल बाद भी भारतीय पूंजीवादी व्यवस्था रोजगार देने में न केवल अक्षम है बल्कि प्रति दिन उनके तादाद में वृद्धि कर रहा है , असंगठित होने के चलते असहाय और भयंकर बदहाली के हालत में है।

वर्ष २००५ में जब इस क़ानून को बनाया गया उस समय विदेशी कर्ज के भार से दबी और लगभग दिवालिया होने के कगार पर खड़ी केन्द्र सरकार इतना मजबूर और असक्त हो गई थी कि आजादी के पच्चास साल बाद भी उसे खुलेआम बड़ी निर्लज्जता से घोषणा करनी पड़ी कि वो इन सभी को साल भर रोजगार की गारंटी तत्काल प्रभाव से नही कर सकती।

नरेगा के एक पूर्ववर्ती योजना, सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना (एसजीआरवाई) में गांव श्रम नेता (VLL) एक वास्तविक ठेकेदार होता था। कहने को तो वही काम का आदेश प्राप्त करता था, धन खर्च करता था, काम का इंतजाम करता था और उपस्थिति पुस्तिका भरने का काम करता था. नरेगा के तहत धनराशि पंचायत के माध्यम से खर्च होना है, VLL को अन्य मजदूरों के सामान मजदूरी कमाना है, और इस योजना में उसे एक मात्र पर्यवेक्षक माना गया है. नरेगा के तहत आज तक चाहे जितने लोगो को वास्तव में रोजगार मिला हो, पर इतना तय है की शाषक वर्ग के गुर्गो, गाँव के दबंगों राजीनीतिक छूटभाईओं के लिए यह एक सुनहरे अवसर की तरह है जहाँ लूट की सीमा का अंदाजा लगना भी मुश्किल है. अपने पूर्ववर्ती सम्पूर्ण ग्रामीण रोजगार योजना की तरह यह भी गाँव में आज शासक वर्ग के लिए वरदान और भ्रष्टाचार का मुख्य केन्द्र साबित हो रहा है.

इस परियोजना को लागू करने का वादा यूपीए के मनमोहन सिंह ने भारतीय आम चुनाव, 2004 के समय चुनाव में विजय हासिल करने के लिए किया था. हालाकि राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (नरेगा) 2005, 25 अगस्त, 2005 को अधिनियमित गया फ़िर भी इसे लागू होने के लिए एक लंबे समय तक इंतजार करना पड़ा और आख़िर में जब नरेगा दो फरवरी, 2006 को लागू किया गया तो पहले चरण में इसे देश के 200 सबसे पिछड़े जिलों तक सीमित रखना पड़ा। दूसरे चरण में वर्ष 2007-08 में इसमें और 130 जिलों को शामिल किया जा सका। योजना को एक अप्रैल 2008 से सभी शेष ग्रामीण जिलों (सब मिला कर ६०० ) तक विस्तार देने की घोषणा की गई है.

इस योजना के तहत हर घर के एक वयस्क सदस्य को एक वित्त वर्ष में कम से कम 100 दिनों का रोजगार दिए जाने की गारंटी दी गई है। यह रोजगार शारीरिक श्रम के संदर्भ में है और उस वयस्क व्यक्ति को प्रदान किया जाता है जो अधिसूचना, द्वारा इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए निर्दिष्ट: की गई मजदूरी दर पर, जो प्रति दिन साठ रुपये से कम नही होगा या न्यूनतम वेतन पर, अगर उक्त क्षेत्र के लिए मजदूरी दर सम्बंधित कोई अधिसूचना जारी नही की गई है, काम करने के लिए राजी हो। रोजगार प्रदान करने के खर्च का 90 प्रतिशत हिस्सा केन्द्र वहन करता है। इसके अलावा इस बात पर भी जोर दिया जाता है कि रोजगार शारीरिक श्रम आधारित हो जिसमें ठेकेदारों और मशीनों का कोई दखल न हो। अधिनियम में महिलाओं की 33 प्रतिशत श्रम भागीदारी को भी सुनिश्चित किया गया है।

धारा ६(१) के अनुसार न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के बावजूद केन्द्रीय सरकार, अधिसूचना, द्वारा इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए मजदूरी दर निर्दिष्ट कर सकती हैं और मजदूरी की दरें विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग अलग हो सकती है परंतु निर्दिष्ट: मजदूरी दर प्रति दिन साठ रुपये से कम नहीं किया जाएगा. धारा ६(२) के अनुसार अगर किसी क्षेत्र में अधिसूचना नही जारी की गई है तो उस क्षेत्र में राज्य सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 की धारा 3 के तहत कृषि मजदूरों के लिए निर्धारित न्यूनतम वेतन दर उस क्षेत्र पर लागू माना जाएगा.

इस तरह पूंजीवादी सरकार द्वारा बेईमानी पूर्वक अपने हित में एक दम कम "न्यूनतम मजदूरी अधिनियम" के अंतर्गत निर्धारित "न्यूनतम मजदूरी" भी नही देने का अधिकार सरकार ने अपने पास रखा है और विधिवत कानून में प्रावधान कर के इसकी खुलेआम घोषणा कर चुकी है. ग्रामीण रोजगार योजना में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 के बावजूद सिर्फ़ ६० रूपया प्रति दिन मजदूरी अधिसूचना के द्वारा निर्धारित करने का सरकार का अधिकार क्या न्यायोचित एव कानून सम्मत है ? पूंजीवादी सरकार अपने ही संसद द्वारा बनाये "न्यूनतम मजदूरी अधिनियम" के प्रावधानों का खुलेआम धजिया उड़ा रही है और इस गंभीर समस्या के सामने मानवाधिकार आयोग से ले कर सारे बुर्जुवा लोकतान्त्रिक संस्थान, एन जी ओ एवं विभिन्न तरह की सुधारवादी पार्टिया बौने साबित हो रहे है।

ग्रामीण खेतिहर आबादी में पूंजीवाद जनित बेरोजगारी से फैले भयंकर असंतोष से निपटने के लिए, उन पर ठंडा पानी डालने के लिए पूंजीवादी सरकार उन थोड़े से जिले में भी रोजगार गारंटी लागु करते समय पूरे वर्ष में १०० कार्य दिवस से ज्यादा रोजगार की गारंटी देने में जब अपनी असमर्थता का ढोल पीट रही थी, यूपीए घटक की अन्य सुधारवादी पार्टिया बड़ी निर्लज्जता से राहत की साँस ले रही थी कि कम से कम उनके समर्थन से बनी सरकार की छवि कुछ तो सुधर रही है।

इतना ही नही वे इस बुर्जुआ प्रपंच और भ्रम को फैलाने में लगे हुए है कि इस गंभीर समस्या का समाधान पूंजीवादी व्यवस्था के दायेरे में रह कर भी किया जा सकता है.